"नाईट मुंशी" महीना बीत गया है रात्रि सेवा देते देते, इंतजार है कोई सुध तो ले , तुम पूछोगे ये रात्रि सेवा क्या है , बस जान लो इंसान छोड़ पिशाच होना है । सो हो गया हूँ मैं भी अब पिशाच सा ही, रोज शाम सुबह होती है शुरु होती है रात्रि चर्या , निशाचरो सा भटकता तो नही, लेकिन एकटक रहता हूं रात भर, जाने कब कहां से कौन सी खबर आ जाये , यहां कोई इंसान या प्रेत नही बल्कि टेलीफोन की एक घंटी मचा देती है तहलका रात भर, कदाचित तोड़ देती है रात का सन्नाटा, फिऱ भी पिशाच तो पिशाच ही है , एकपल भी आंख नही मूंदता, साक्षी है ये रातो के चारो पहर के ढलने का , जो अक्सर अकेला रहता है रात भर । लेकिन एकमात्र नहीं है , मौजूद है एसा ही एक पिशाच आज हर थाने में , कुछ दिनो की बात हो तो ठीक है पिशाच होना , लेकिन महीने हो जाये तो इंसानी आदते दूर होने लगती है, प्रेत योनी की तरफ अग्रसन होने लगती है जिंदगी, भयवाह लगने लगता है उजाला, एसे ही उजाले से महीने दूर हो गये है मुझे भी, इससे पहले की डराने लगे मुझे यह उजाला , कहीं बन न जाउं इंसान होकर भी पिशाचो सा, ए...
कविता , नज्म , गजल ,शायरी, गीत व पहाड़ी कविता मंच ।